श्रियः कुरूणामधिपस्य पालनीं प्रजासु वृत्तिं यमयुङ्क्त वेदितुम् (किरातार्जुनीयम्, श्लोक-1)

श्रियः कुरूणामधिपस्य पालनीं प्रजासु वृत्तिं यमयुङ्क्त वेदितुम्
स वर्णिलिङ्गी विदितः समाययौ युधिष्ठिरं द्वैतवने वनेचर: ॥१॥

हिन्दी व्याख्या - राज्यभ्रष्ट युधिष्ठिर ने पुनः राज्यप्राप्ति की अभिलाष में प्रजाजनों के प्रति सिंहासनाधिरूढ़ं दु्योंधन के व्यवहार को जानने के लिए ब्रह्मचारी के वेश को धारण करने वाले एक किरात को गुप्तचर के रूप में भेा था। क्योंकि प्रजापालन की नीति के ऊपर ही राज्यलक्ष्मी की प्रतिष्ठा है। यदि राजा को अपनी प्रजा का अनुराग प्राप्त नहीं होता है तो वह कभी भी उनके ऊपर दीर्घकाल तक शासन नहीं कर सकता। इसीलिए दुर्योधन की नीति को जानने के लिये युधिष्ठिर अत्यधिक उत्सुक हैं। दुर्योधन के समस्त समाचार को
जानकर वह गुप्तचर युधिष्ठिर के पास वापल लौट कर आया।
অসমীয়া অৰ্থ ঃ ক
विशेष - प्रस्तुत श्लोक में गुप्तचर के अतिशय महत्व का प्रतिपादन किया गया है।
अलंकार - चतुर्थ चरण 'वने वनेचरः' में स्वरव्यञ्जनसमूह 'वने' की सकृत, एक बार स्वरूपत: तथा क्रमत: आवृत्ति होने से छेकानुप्रास है।
वर्णसाम्यमनुप्रासः। छेकवृत्तिगतो द्विघा। सोऽनेकस्य सकृत्पर्वः' "छेको व्यञ्जनसंघस्य सकृत्साम्यमनेकधा' साहित्यदर्पण (किन्तु ओचार्य मल्लिनाथ ने वृत्यनुप्रास स्वीकार किया है)
छन्द: - प्रत्येक चरण में जगण (ISI), तगण (551), जगण (I5) रगण (SIऽ) होने से वंशस्थ छन्द- जतौ तु वंशस्थ मुदीरितं जरौं'

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